इंटर्नशिप के दौरान
आप पाते है कि आप अपने सपने के पास खड़े है। पहले दिन आपकी सज्जनता पूरे उफान पर होती है। ये एक वक्त होता है, जब आपको लगता है कि जग जीतने की सारी काबिलियतें आपके पास है और यहीं मौका वो सब आपको दे देगा। चैनल या अखबार में हर किसी को सर कहते हुए आप कुछ ही दिनों में फ्रस्टेट हो जाते है। आपको या को फीड के टीसीआर नोट करने का काम मिल जाता है या किसी डेस्क पर अनुवाद का घसिटाना काम। आपके सपने टूटने से लगते है। लेकिन इसी प्रक्रिया में पत्रकार बनने का एक गुण आप सीख लेते है। चाटुकारिता।
दो महीने बाद
इंटर्नशिप करने वाले अस्सी फीसदी लोगों को दो महीने बाद एक दिन घर जाने की बस पकड़ लेनी होती है। और कईयों को कई रास्ते दिखने लगते है। जो बीस फीसदी बते रहते है वे किसी न किसी तरह के अपमान के बाद नौकरी के पहले पायदान को पाते है। ट्रेनी के तौर पर पत्रकार पैदा होने लगता है। अपवादों के लिए हमेशा जगह होती है। इसलिए सौ में से एक पत्रकार अपनी सही काबिलियत के बल पर भी मौके पाता है। और कुछ साल में वो अपनी जगह भी बना लेता है।
एक सचाई
पत्रकार बनाने वाली सारी संस्थाओं में नौकरी नहीं नितलती है। ज्यादातर संस्थान जो अखबारों में विग्यापन निकालते भी है, वे आगे जाकर एक शब्द से बंधे नजर आते है। जुगाड़ और जान पहचान। सबसे बड़ी बात है जान पहचान होना। ये एक तरह की रेफरल पालिसी जैसा है, जो एक जुबान या संबंध से आगे बढ़ती है। पत्रकार होना भी सीए जैसा है। पहले का सीए ही नए सीए को जन्म देता है। उसी तरह पुराने पत्रकार की सिफारिश से ही नई नौकरी मिलती है।
और ज्यादा खरा ये कि पत्रकारिता अब पैशन नहीं पेशा है। पत्रकारिता अब जूनुन नहीं नौकरी है। और इसे दिलाने के लिए कोई भी योग्यता काफी नहीं है। मैने देखा है कि किस तरह एक बड़े व्यवसायी के बेटे बेटी को माइक थमा दिया जाता है। और किसी के मां बाप पत्रकार हो को जुगाड़ बना दिया जाता है।
सो वे आएं पत्रकार बनने जो ये जानते हो कि ये पेशे में तब्दील हो रहा है। और बाजार में सामान बेचने के लिए कोई भी तरकीब सही मानी जाती है।
Soochak
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