आसपास हिंदी है। बातचीत हिंदी है। माध्यम हिंदी है। और हर जनसंचार माध्यम के साथ हिंदी है। तो क्या माना जाए कि हिंदी, जो कि अब ब्लाग के हजारों पन्नो पर मौजूद है, इतनी लोकप्रिय हो चली है कि उसे रोजाना खबर बनाना जरूरी नहीं है। लगता कुछ ऐसा ही है।
आठ बार हो चुके विश्व हिंदी सम्मेलन के फायदे क्या है। इस बार के हिंदी सम्मेलन में नामधन्य लोग नहीं गए। कहा कि फिजूल है। वहां तो फला विचारधारा का कब्जा है।
तो क्या हिंदी विचारधारा में फंसी भाषा है। वो भारतीय नहीं है। वो किसी लेखक और प्रचारक की मोहताज है।
विदेश मंत्रालय तो इसे हर साल फैलाए जा रहा है। लोग तीन दिनों में इसकी सुध भी ले लेते है। लेकिन क्या हिंदी जनसंचार माध्यमों से फैल रही है। नहीं।
जिस हिंदी की बात इन सम्मेलनों में होती है वो कही किताबों और इतिहास में दर्ज है। आज वैश्वीकरण की जिस तरीके को हिंदी ने ढाला है, वो अनोखी है, क्रियात्मक है।
लेकिन हमारा सरोकार क्या है। टीवी इसे देखता नहीं, रेडियो को गाना बजाने से फुरसत नहीं। पेपरों में कुछ सौ शब्दो में हिंदी की कहना संभव नहीं। तो कैसे बचे हिंदी।
मेरा लिखना केवल लिखना भर है। मैं विचार के तौर पर जानता हूं कि हिंदी को समय और काल ने घेर रखा है। उसे अपनाना हीनता का भाव लाता है। उससे दूर रहना उच्चता है।
टीवी से हिंदी को समय देना अब केवल सपना भर है। रेडियो के विकास ने हिंग्लिश को पनपा रखा है। अखबारों में अंग्रेजी भाषा के शब्द घुस रहे है। तो कैसे बचे हिंदी।
नहीं पता कैसे बचेगी हिंदी।
सूचक
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Tuesday, July 17, 2007
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4 comments:
आपकी इस पोस्ट में कितने शब्द विदेशी है? फारसी के हैं? तो समय के साथ अन्य भाषाओं के भी शब्द शामिल होंगे ही. होने दें.
हिन्दी जिंदा रहेगी, अंतिम हिन्दी भाषी के जिवीत रहने तक.
बहुत अछे संजय जी ..... यह मात्र उम्मीद नही आप हम सब का विश्वास है .....
कुछ हद तक आप की बात सच है लेकिन प्रचलित विदेशी शब्दों को अपनाते हुए भी अगर हिन्दी का जीवन बच सकता है तो बचाना चाहिए। लेख में उठाई बाते विचारने योग्य है।
बचे तो वह जो खत्म हो रही हो. अब मामला चंट है. राजस्थान के गांवों में एक कहावत चलती है कि राजा ने कूड़न किसान से कहा था अच्छे-अच्छे काम करते जाना.
भाषा, भूषा, भेषज, भवन सब बचेंगे.
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