Wednesday, July 11, 2007

एक सचाई: कैसे मिले मीडिया में नौकरी

कैसे मिले मीडिया में नौकरी। ये सवाल आज लाखों मास कम्यूनिकेशन करना वालों के दिमाम में डोल रहा है। ये हर पत्रकार के बनने से पहले का सवाल है। हर दिन संघर्ष का है। ये याद दिलाने वाला तीखा अनुभव आपको तोड़ता है। आज देश के हर कोने से हर साल लाखों युवक युवतियां पत्रकारिता का कोर्स करके बाजार में नौकरी की तलाश में घूम रहे है। इनमें से कुछ फीसदी तो अपने स्थानीयपन को बरकरार रखकर स्थानीय फत्रकारिता के किसी पायदान पर सिमट जाते है। लेकिन जिनमें एक सपना है वे चले आते है दिल्ली। दिल्ली दिल वालों का शहर। यहां से शुरू होती है एक दुस्वप्न की शुरूआत।

पहला पड़ाव

घर से आप अपने अभिवाहकों को रोजाना, कोर्स करने के दौरान, बताते रहते है कि अखबारों में हर खबर के पीछे एक पत्रकार है। टीवी पर माइक थामे वो दुनिया को बता रहा है कि किस तरह ये खबर उसकी बदौलत आप तक पहुंच रही है। इसी सपने को जीने के लिए घर के पैसों पर एक डिग्रीधारी आ जाता है दिल्ली। यहां उसे किसी सस्ते इलाके में रहने के लिए कमरा मिल जाता है। लड़कियां शुरू में रहती है अपने रिश्तेदारों या किसी लेडिज हास्टल में। अगले दिन से शुरू होती है किसी रूटधारी बस में अपने सपने के तलाशने की कोशिश।

पहले पड़ाव से पहले

ज्यादातर पत्रकारिता करने वाले आज के युवक, अगर वे किसी शहर के हैं तो, वो किसी न किसी अखबार या लोकल टीवी या स्थानीय स्तर पर बने बड़े चैनल में एक दो महीने में कोई न कोई बुनियादी सोच पा ही लेते है। ये अनकही मेहनत उनमें उस ताकत को ज्यादा करती है, जिसे वे लिखकर या माइक थाम कर पाना चाहते है। इनमें से कुछ लोग या तो नौकरी के आश्वासन पर या किसी छोटे पद के मिलने के चलते रह जाते है अपने शहर में। और कुछ घर की मजबूरियों के चलते रहते है अपने शहर में किसी न किसी पत्रकारिता आलमबरदार की तरह।

दूसरा पड़ाव

अपनी इंटर्नशिप के दौरान ही नवप्रवेशी पत्रकार जान जाता है कि दिल्ली में फला चैनल के आफिस कहां है या दिल्ली के आईटीओ पर ही सारे अखबारों के आफिस हैं। सो पहला दिन किसी रूट की बस में पिसने के बाद वो किसी ऐसी सड़क पर खड़ा होता है, जहां से रास्ता उसके सपने को जा रहा होता है। लेकिन इसी के बीच में खड़ा है एक गार्ड। गार्ड हर तरह से आपसे ज्यादा उस संस्थान के प्रति जागरूक होता है। वो रोज यहां पत्रकारों को देखता है, उनके कद के अनुसार। आपकी बेबसी समझने वाला वो पहला शख्स है। आपके पत्रकार बनने में आपको वो पहली बाधा लगता है। आप अमूमन इसे संघर्ष की तौर पर लेते है। गार्ड को ये सख्त आदेश होते है कि वो किसी भी अनजान के पत्रकारिता की हद में प्रवेश न करने दे। न जाने इस फरमान के चलते कितनी खबरों की मौत संस्थान के दरवाजे पर ही हो जाती है। आप गार्ड के ये समझाने की कोशिश करते है कि आपको जिससे मिलना है,वो कितना जरूरी है। वो समझता नहीं है। और आपको अपनी बायोडाटा उसके हवाले करना पड़ता है। यानि आपको अपना सपना वहीं मरता दिखता है।

आगे जारी रहेगा......

Soochak
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2 comments:

ravishndtv said...

सचमुच बहुत दुखद है। कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। वैसे भी पूरे साल में किसी एक चैनल मे कुल मिलाकर पांच नौकरियां निकलती होंगी। पांच के लिए विज्ञापन देना किसी मुसीबत से कम नहीं। योग्य लोगों को तलाशना भी एक मुश्किल काम है।
मगर नए लोगों को यह जानकारी तो मिलनी ही चाहिए कि फलां चैनल में इस महीने या अगले छह महीने तक कोई नौकरी नहीं है। किसी तरह की कोई सूचना का इंतज़ाम हो जाए तो बेहतर रहेगा। हम सब इस प्रक्रिया से परेशान हो कर गुजरे हैं।

Sanjay Tiwari said...

अरूण शौरी उवाच-
पत्रकारिता करनी है तो आय का वैकल्पिक स्रोत होना चाहिए.
जाहिर तौर पर वह वैकल्पिक स्रोत दलाली नहीं हो सकता. ऐसे युवा पत्रकारों को ब्लाग का रास्ता बताईये. कहां टीवी की मर्त्य दुनिया में साथियों को फंसाते हैं.