बीते हफ्तों में काफी कुछ ऐसा गुजरा है जो आने वाले वक्त में हर किस्म के मीडिया का चेहरा बदल सकता है। ये खुद की गलतियों से सीखने का समय है। अगर एक चैनल को एक महीने के लिए बंद करना सही है तो एक लड़की की मौत से भी कई सच्चाईयां सामने आई हैं। देखना है कि आने वाले समय में कितना सीखता है मीडिया। बहरहाल बीते हफ्तों में कई ब्लागरों ने मीडिया पर काफी कुछ लिखा। कुछ चिट्ठे।
मीडिया से जुड़े लोगों से विन्रम निवेदन
मिडडे पत्रकारों को 4 माह की सजा: देखिए उन्होंने लिखा क्या था?
जरा ध्यान दें
क्या मीडिया में महिला होना गुनाह है
बुद्धू-बक्से की पत्रकारिता और राष्ट्रीय शर्म
सितारों को मिला सही सबक
ब्लॉग का फैलता महाजाल
करात का रहस्य : इंडिया टुडे
नहीं
औकात में रहे मीडिया और उनके नुमाइन्दे
हल्की होती राजनीतिक रिपोर्टिंग...
हंसी क्यों इतनी मंहगी
हम बातें कम, प्रवचन ज्यादा करते हैं
रेडियो समाचार: अखबार व आम आदमी के प्राण
और खबर फैल गयी
मीडियायुग
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Saturday, September 22, 2007
Sunday, September 16, 2007
A mail to DEVELOPMENT
To: chairman@nhai.org, ksramasubban@nhai.org, nirmaljitsingh@nhai.org, avsinha@nhai.org,kandaswamy@nhai.org,didar@nhai.org
CC: info@aajtak.com, info@sahara-one.com,feedback@ndtv.com,mediayug@gmail.com, feedback@in.startv.com,info@saharasamay.com
This is a mail regarding the apathy of Roads! India is a booming economy and tranportation plays a big role in higher results. We always discuss about bad condition of roads and other economic barriers. The mailer sent this mail to all he can judge, to address this problem. Though its seems a very remote problem to some of us, but it persist in all India. And by this mail intiative, we can create a uproar, about the apathy. Media has the responsibilities to play a important role in the development of Democracy. Economy, Society and Political Consciousness is vital to any country.
Mail was sent to all national channels, and some of the groups have regional channels. This is surely a news item for them, in terms of development of economy.But, till date we are never seen a National Highway Story. Hope we can judge the mail as a starter, and take responsibilty to aware the authorities about the big issues of country.
-------------------------------------------
REMINDER NO1.
Dear Sir,
I am resident of Thane city, Maharashtra state and I regularly commute through National highway no 8. The condition of this road is really pathetic. [From Dahisar to Virar] Accidents take place on a regular basis because of pot holes and horrible condition of the road. I sincerely request you to kindly look into the matter or direct this mail to the concerned. I really feel that if this point is addressed immediately can save many valuable lives.
Regards
Rajesh Kulkarni
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REMINDER NO 2.
Dear Sir, I presume my earlier complaints about bad roads [ national highway no 8] has not been dealt with. I understand that this problem of mine and everybody holds no real importance to you. What are you waiting for? a few more lives to be taken on account of this ruthless roads, a few more accidents to shake you in the real sense. I hope your wait does nor bear any fruits because I am more concerned about the innumerable commuters driving on this road and innumerable people going along the road than the irresponsible attitude of national highway authorities. I hope the photographs I am enclosing herewith will be an eyeopener for you.
regards
Rajesh Kulkarni.
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PHOTOS Media Yug Got from the mailer:
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Sunday, September 09, 2007
एक खबर, एक पत्रकार, और टूटता विश्वास
एक स्टिंग। एक निशाना। एक शिकार। एक पत्रकार। और टीवी चैनलों को एक नसीहत। कि संभले। ये लोकतंत्र है। वे चौथे स्तंभ है। लेकिन उनकी चाहतों में किसी इंसान की जिंदगी पिस जाए तो सवाल बड़ा हो जाता है। जिस पत्रकार ने एक महिला की जिंदगी पर दाग लगाए वो कल थाने में फूट फूट कर रो रहा था। कह रहा था कि रिपोर्टर के रूप में स्थापित होना चाहता था। इसलिए हर बेइमानी को अपना लिया था। गलती उसकी जितनी है, उससे ज्यादा उस माहौल की है, जिसने उसे ये समझाया था कि पत्रकारिता इंसानी अधिकारों के ऊपर है।
स्टिंग पर लोकतंत्र के सारे स्तंभ सवाल खड़े करते रहे है। ये निजता पर हमला है। ये दवाब का हथियार है। ये टीआरपी की चाहत का नतीजा है। हर दिन चैनलों को स्टिंग के घटिया से बढ़िया फुटेज मिलती रहती है। वे कभी कभी बिना नापे तौले इन पर खेलते है। और कर देते है किसी एक जिंदगी को ताउम्र के लिए दागदार।
एक लालच ने उमा खुराना को अरोड़ा की बात मानने पर मजबूर किया। और एक लालच ने एक चैनल और एक नए पत्रकार से वो करवाया, जो केवल नाजायज ही नहीं, समाज के लिए खतरा भी है। एक बड़े चैनल पर चले एक स्टिंग के बाद एक छोटा अधिकारी संवाददाता को फोन करके कहता है। नौकरी से तो केवल सस्पेंड हुआ हूं। लेकिन धन्यवाद। अब सब जानते है कि मैं दलाल हूं। काम मेरे जरिए करवाए जा सकते है। मेरी कमाई बढ़ गई है। ये सच है।
बदनाम होने को भी नाम कमाना माना जा रहा है। समाज की सोच बदल चुकी है। विश्वास और खबर के नाते टूट चुके है। अब खबर के बाद क्या होगा ये खबर करने वाले को पता नहीं है। वो केवल या तो खानापूर्ति में खबरें करता है या उसे होना है नाम वाला। बदनामी की कीमत पर भी।
बीते दिनों सूचना एवं प्रसार मंत्रालय ने आंकड़ो के खेल को समझाने वाली कंपनी को चेताया है। चैनलों पर लगाम कसने की उसकी हसरत को चैनल अपने कर्म से बढ़ावा दे रहे है। वे भाग रहे है एक तमाशे के पीछे। और एक दिन इस तमाशे में मदारी के हाथ बंदरों की तरह नांचेंगे ये चैनल।
खबरों में मसाला दिखाकर वे जनता के साथ हंसने और टांट का रिश्ता बना चुके है। सूचना और मनोरंजन की देहरी पर वे नग्नना औरक अपराध दिखा रहे है। समाज को खुली आंखों से खून और देह बना रहे है।
स्टिंग की मर्यादा को भुला चुके चैनल अब असमंजस में है। एक ने दूसरे की गलती को भुनाना भी चालू कर दिया है। हर कोई नैतिकता के लिए काम कर रहा है। मानो सबने रामायण और महाभारत से कुछ सीख लिया है। चैनलों पर श्लोक तो नहीं कूटनीति साफ दिख रही है।
ये वो आगाज है, जो अंत के नजदीक जाती दिखती है। एक खबर को दूसरा काटे को समाज खबर पर विश्वास कैसे पैदा करेगा। और अगर विश्वास का संकट पैदा होगा तो समाज कहां देखेगा।
समाचार चैनलों को सोचना है। उन्हे देखना है। कि दिखाना क्या है। दबाव किस पर बनाना है। लाभ किसे पहुंचाना है। उसे पत्रकार बनाना है। खबर चलाना है। और ऐसा केवल विश्वास और समझ से हो सकता है। उम्मीद है कि कहीं तो कोई पत्रकारिता के लिए काम कर रहा होगा।
सूचक
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स्टिंग पर लोकतंत्र के सारे स्तंभ सवाल खड़े करते रहे है। ये निजता पर हमला है। ये दवाब का हथियार है। ये टीआरपी की चाहत का नतीजा है। हर दिन चैनलों को स्टिंग के घटिया से बढ़िया फुटेज मिलती रहती है। वे कभी कभी बिना नापे तौले इन पर खेलते है। और कर देते है किसी एक जिंदगी को ताउम्र के लिए दागदार।
एक लालच ने उमा खुराना को अरोड़ा की बात मानने पर मजबूर किया। और एक लालच ने एक चैनल और एक नए पत्रकार से वो करवाया, जो केवल नाजायज ही नहीं, समाज के लिए खतरा भी है। एक बड़े चैनल पर चले एक स्टिंग के बाद एक छोटा अधिकारी संवाददाता को फोन करके कहता है। नौकरी से तो केवल सस्पेंड हुआ हूं। लेकिन धन्यवाद। अब सब जानते है कि मैं दलाल हूं। काम मेरे जरिए करवाए जा सकते है। मेरी कमाई बढ़ गई है। ये सच है।
बदनाम होने को भी नाम कमाना माना जा रहा है। समाज की सोच बदल चुकी है। विश्वास और खबर के नाते टूट चुके है। अब खबर के बाद क्या होगा ये खबर करने वाले को पता नहीं है। वो केवल या तो खानापूर्ति में खबरें करता है या उसे होना है नाम वाला। बदनामी की कीमत पर भी।
बीते दिनों सूचना एवं प्रसार मंत्रालय ने आंकड़ो के खेल को समझाने वाली कंपनी को चेताया है। चैनलों पर लगाम कसने की उसकी हसरत को चैनल अपने कर्म से बढ़ावा दे रहे है। वे भाग रहे है एक तमाशे के पीछे। और एक दिन इस तमाशे में मदारी के हाथ बंदरों की तरह नांचेंगे ये चैनल।
खबरों में मसाला दिखाकर वे जनता के साथ हंसने और टांट का रिश्ता बना चुके है। सूचना और मनोरंजन की देहरी पर वे नग्नना औरक अपराध दिखा रहे है। समाज को खुली आंखों से खून और देह बना रहे है।
स्टिंग की मर्यादा को भुला चुके चैनल अब असमंजस में है। एक ने दूसरे की गलती को भुनाना भी चालू कर दिया है। हर कोई नैतिकता के लिए काम कर रहा है। मानो सबने रामायण और महाभारत से कुछ सीख लिया है। चैनलों पर श्लोक तो नहीं कूटनीति साफ दिख रही है।
ये वो आगाज है, जो अंत के नजदीक जाती दिखती है। एक खबर को दूसरा काटे को समाज खबर पर विश्वास कैसे पैदा करेगा। और अगर विश्वास का संकट पैदा होगा तो समाज कहां देखेगा।
समाचार चैनलों को सोचना है। उन्हे देखना है। कि दिखाना क्या है। दबाव किस पर बनाना है। लाभ किसे पहुंचाना है। उसे पत्रकार बनाना है। खबर चलाना है। और ऐसा केवल विश्वास और समझ से हो सकता है। उम्मीद है कि कहीं तो कोई पत्रकारिता के लिए काम कर रहा होगा।
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Geetanjali Nagpal and a Comment from life...

Why Geetanjali Nagpal is on News Channels? She abuse herself and destroy her life for some adiiction and passion. She is a perfect a example for blind youth, who are heading and enjoying a life of FUN. Well there are more issues to discuss, specially regarding the media coverage. But in this furore, a person from Germany make a comment. He want back his wife, Gitanjali Nagpal, for his child....
MediaYug got this link....This is all Robert has to say...and full content for India News Channels to play Sunday....

http://www.sheetudeep.com/blog/lifestyle/husband-robert-and-son-arthur-are-waiting-for-geetanjali-nagpal/
Media Yug
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Friday, September 07, 2007
Giving voice to the voiceless

In his Ramon Magsaysay Award acceptance speech in Manila on August 31, P. Sainath, Rural Affairs Editor of The Hindu, spoke of the legacy bequeathed to Indian journalism by freedom fighters who doubled up as journalists, and said he was accepting the award on behalf of the same tradition of giving voice to the voiceless. Mr. Sainath won the award in the Journalism, Literature and CreativeCommunication category for his "passionate commitment as a journalist to restore the rural poor to India's national consciouness." This is the text of the speech:
This is the 60th year of Indian independence. A freedom fought for and won on a vision that placed our humblest citizens at the centre of action and of the future. A struggle that brought the world's then mightiest empire to its knees. A struggle which saw the birth of a new nation, with a populace overwhelmingly illiterate, yet aiming at and committed to building a democracy the world could be proud of. A people who, one freedom fighter predicted, would make the deaf hear and the blind see. They did.
Today, the generation of Indians who took part in that great struggle have mostly died out, though their achievements have not. The few who remain are in their late 80s or 90s. As one of them told me recently: "We fought to expel the colonial ruler, but not only for that. We fought for a just and honourable nation, for a good society."I am now recording the lives of these last stalwarts of a generation I was not part of, but which I so deeply admire. A struggle that preceded my birth, but in which my own values are rooted. In their names, with those principles, and for their selflessness, I accept this great award.
In that great battle for freedom, a tiny press played a mighty role. So vital did it become, that every national leader worth his or her salt, across the political spectrum, also doubled up as a journalist. Small and vulnerable as they were, the journalists of that time also sought to give voice to the voiceless and speak for those who could not. Their rewards were banning, imprisonment, exile and worse. But they bequeathed to Indian journalism a legacy I am proud of and on behalf of which tradition, I accept this award today.
For the vision that generation stood for, the values it embodied, are no longer so secure as they once were. A nation founded on principles of egalitarianism embedded in its Constitution, now witnesses the growth of inequality on a scale not seen since the days of the Colonial Raj. A nation that ranks fourth in the world's list of dollar billionaires, ranks 126th in human development. A crisis in the countryside has seen agriculture — on which close to 60 per cent of the population, or over 600 million people, depend — descend into the doldrums. It has seen rural employment crash. It has driven hundreds of thousands from villages towards towns and cities in search of jobs that are not there. It has pushed millions deeper into debt and has seen, according to the government itself, over 112,000 farmers take their own lives in distress in a decade. This time around, though, the response of a media politically free but chained by profit, has not been anywhere as inspiring. Front pages and prime time are the turf of film stars, fashion shows and the entrenched privilege of the elite. Rural India, where the greatest battles of our freedom were fought, is pretty low down in the media's priority list. There are, as always, exceptions.
The paper I work for, The Hindu, has consistently given space to the chronicling of our greatest agrarian crisis since the eve of the Green Revolution. And across the country are countless journalists who, despite active discouragement from their managements, seek to place people above profit in their reporting. Who try desperately to warn their audiences of what is going on at the bottom end of the spectrum and the dangers to democracy that this involves. On behalf of all of them, all these colleagues of mine, I accept this award.
In nearly 14 years of reporting India's villages full time, I have felt honoured and humbled by the generosity of some of the poorest people in the world. People who constantly bring home to you the Mahatma's great line: `Live simply, that others might simply live.' But a people we today sideline and marginalise in the path of development we now pursue. A people in distress, even despair, who still manage to awe me with their human and humane values. On their behalf too, I accept the Ramon Magsaysay award.
Labels:
Agrarian Crisis,
Magsasay Award,
P. Sainath,
Rural Reporting,
The Hindu
Monday, August 27, 2007
टेलिलिटिगेशन और समाज

क्या टीवी अदालती फैसलों को प्रभावित कर रहा है।
क्या टीवी पर बार बार दिखने वाले चेहरे अपराधी की परिभाणा अपनी छवि से बदल रहे है।
क्या टीवी ने हर नामी गिरामी पर दिए जाने वाले फैसले पर सहानुभूति बटोरना शुरू कर दिया है।
क्या टीवी फैसलों में अदालती बराबरी को हैसियत वालों के हिसाब से देख रहा है।
ऐसे तमाम सवाल है जो बीते दिनों संजय दत्त और सलमान खान को दिए गए फैसलों की छांव में खड़े किए जा सकते है।
ये सवाल कोई भी आम आदमी उठा सकता है। इसके लिए पत्रकारिता की लाठी थामे हाथों की जरूरत नहीं है। पत्रकार को खबर और खबर बनने वाले के बीच की फासला बड़ा करना होगा। नहीं तो वो खबर वाले की छवि में खबर को खो बैठेगा। कुछ ऐसा ही हो रहा है।
बीते दिनों कई बड़ी हस्तियों की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े हुए है। चाहे गवाह के साथ बचाव पक्ष का वकील का साठ गांठ हो या मुंबई में वारंट की खरीद फरोख्त का मसला हो। टीवी ने कही न कही हर खबर से एक नया दायरा खड़ा कर दिया है। सोच को पक्ष में करने का दायरा।
संजय दत्त या हो सलमान खान दोनों को दिए गए फैसलों में टीवी ने उनके जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों और मार्केट,यानि बालीबुड पर असर को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया। सलमान को तो मानो शुक्रवार को सजा देना ही गलत था। संजय दत्त की मुन्नाभाई छवि और बीते दिनों सलमान की चित्रकार की इमेज के दायरे में पेश की गई हर खबर के मायने आम आदमी के सहानुभूति पैदा कर रहे थे।
अमेरिका में एक मामले में इसे लेकर बड़ी जोरदार चर्चा है कि टीवी पर होने वाली ट्रायल के क्या असर है। वहां के इतिहास में अब तक की सबसे चर्चित मीडिया ट्रायल को लेकर अब किताब भी आ गई है। और इस टीवी ट्रायल को टीवी लिटिगेशन का नाम दिया गया है।
टीवी लिटिगेशन। यानि टीवी के जरिए एक ऐसी हस्तक्षेप जो जाहिर है समाज में होने वाले किसी भी किस्म के अपराध और अपराधी के पक्ष में चलाया जा रहा अभियान ही समझा जा सकता है।
ये एक नए तरह की अदालत है। जहां जनभावनाओं के अनुकूल ही फैसलों के लिए राय बनाई जाती है। राय भी ऐसी जो एक झटके में को सही लगती है। लेकिन जिसके परिणाम किसी भी समाज में एक आदर्श मिसाल नहीं बन सकते।
मिसाल बनाने वाला टीवी अब रहा भी नहीं। फौरी खबरों के लिए फौरी तैयारियों के बीच खबर पेश करने की जो कला, या कहें कि विकृति टीवी ने पैदा की है, वो जाहिर है किसी भी देश में मिसाल को नहीं ही बना सकती।
टीवी ने स्वरूप बदला। खबर के चेहरा बदला। दर्शक की सोच बदली। समाज की रूख बदला। और अब ये बदल रहा है एक देश की संस्कृति को। इसे किसी तरह की तैयारी नहीं करनी। क्योंकि आप खरीदार है। और बेचना ही, फैल चुकी लोकप्रिय संस्कृति की निशानी है।
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Sunday, August 26, 2007
Media Law and Ethics
In the era of media the most vulnerable term is Media Ethics. Ideally media has to always try to portray the truth of the society, but practically it is not visible. This is the common reaction of channel and newspaper heads that there is some sort of market interference, which succumb us to live in paparazzi and trivial issues. This is the play ground where all bad traits of journalism prosper in the name of market and livelihood. So what is the future? Every human who work for society in the name of journalist is little confused and want to take a breath.

This breath is come into the shape of writing and analysis. Television folks are always cursing print folks for not understanding the ground realities of television journalism. And television folks always busy in leg pulling of print for their style and traditionalism. This is the river, which has two corners. Both are shaping society, but not along with a common view. That’s why you saw a big gap between news paper and television news.
In the light of a new book, Media Law & Ethics: Reading in Communication regulation, Edited by: Kiran Parasad, the issues are more discussable for the mass communication student, journalist and for the civil society intellectuals. The book is published in two volumes, Volume 1 covers: Section 1(THEORITICAL FOUNDATIONS OF COMMUNICATION REGULATION) Freedom , Regulation and Ethics: Market, State and Media Accountability System- Claude-Jean Bertrand, Communication and Values- Kiran Parasad, A theory of Media Ethics: Foundation and Key Issues- Kiran Prasad, Satellite Broadcasting Regulation and Cultural Exception: An Arab Islamic View of Communication- Basyouni Ibrahim Hamada , Section 2 (PRESS AND BROADCASTING REGULATIONS) Law and Regulations Governing Press Freedom in India-P E Thomas, Laws and Regulations in Indian Broadcasting- G Nagamallika, Foreign Direct Investment in Print Media: Legal and Ethical Issues- Roy Mathew, Freedom, Individualsim and Ethical Behaviour: A Comparative Study of Print and Electronic Media Journalist- Kiran Parasad, Electronic New Media and Emerging Ethical Issues- Bhavya Srivastava.
This is not the all that the volumes cater, the whole dilemma facing by mass media and the booming new media is also covered in depth, in two books. The most fascinating thing the arena it covers. From Print to Television, Communication to Market, Law to Democracy, Individualism to mass media.
Media is as diverse as this country is. We must understand the limitations in which the news and content is present. The medium is the message, and when the message is clear it shapes society. Overall we have to live in a society, which created leader and dominates the values.
Media Ethics is always everywhere, in every newsroom, there is a veteran, who is anguish about the drama and press the PRESS button.
Bhavya Srivatava
Producer
Star News
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This breath is come into the shape of writing and analysis. Television folks are always cursing print folks for not understanding the ground realities of television journalism. And television folks always busy in leg pulling of print for their style and traditionalism. This is the river, which has two corners. Both are shaping society, but not along with a common view. That’s why you saw a big gap between news paper and television news.
In the light of a new book, Media Law & Ethics: Reading in Communication regulation, Edited by: Kiran Parasad, the issues are more discussable for the mass communication student, journalist and for the civil society intellectuals. The book is published in two volumes, Volume 1 covers: Section 1(THEORITICAL FOUNDATIONS OF COMMUNICATION REGULATION) Freedom , Regulation and Ethics: Market, State and Media Accountability System- Claude-Jean Bertrand, Communication and Values- Kiran Parasad, A theory of Media Ethics: Foundation and Key Issues- Kiran Prasad, Satellite Broadcasting Regulation and Cultural Exception: An Arab Islamic View of Communication- Basyouni Ibrahim Hamada , Section 2 (PRESS AND BROADCASTING REGULATIONS) Law and Regulations Governing Press Freedom in India-P E Thomas, Laws and Regulations in Indian Broadcasting- G Nagamallika, Foreign Direct Investment in Print Media: Legal and Ethical Issues- Roy Mathew, Freedom, Individualsim and Ethical Behaviour: A Comparative Study of Print and Electronic Media Journalist- Kiran Parasad, Electronic New Media and Emerging Ethical Issues- Bhavya Srivastava.
This is not the all that the volumes cater, the whole dilemma facing by mass media and the booming new media is also covered in depth, in two books. The most fascinating thing the arena it covers. From Print to Television, Communication to Market, Law to Democracy, Individualism to mass media.
Media is as diverse as this country is. We must understand the limitations in which the news and content is present. The medium is the message, and when the message is clear it shapes society. Overall we have to live in a society, which created leader and dominates the values.
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Sunday, August 19, 2007
सरोकार से शोर की पत्रकारिता
आउटलुक हिंदी देखी। चैनलों की गलाकाट प्रतियोगिता, या कहें कि विध्वंस प्रस्तुति को लेकर कवर स्टोरी छपी है। देखकर अजीब लगा। प्रासंगिक है। लेकिन क्या सरकार की एक मुहिम की छांव में चैनलों की हकीकत बताना जायज है।
समाचार चैनलों पर क्या दिखाया जाएगा, ये तय करना समाज का काम है। लेकिन भारत जैसे देश में समाज की सहमति को लेकर ही कई तरह के भ्रम जनसंचार माध्यमों में नजर आते है। पत्रिका में जो विमर्श है, वो समाज में नहीं दिखता। एक बड़े पत्रकार ने लिखा कि किसको बता रहें है कि जो दिखाया जा रहा है, वो सही नहीं है। जो टीवी देखता है, वो आम आदमी हो या खास, वो अपनी व्यस्तता के बाद ही इस चौखटे के सामने बैठता है। और इसी व्यस्तता की थकान मिटाने को टीवी चैनलों ने इस चौखटे को मनोरंजन का माध्यम बना रखा है।
सिनेमा को लेकर यहीं निष्कर्ष निकाला जाता है आदमी को वो दिखाओ जिससे वो सिनेमाहाल में अपनी निजी जिंदगी को भुला बैठे। यानि एक तरह की माया। जिसमें आप अपनी पहचान भुला बैठें। तो क्या टीवी ने भी आपको अपनी पहचान भूलने पर मजबूर कर दिया है।
गाहे बगाहे आप अपने अखबार में टीवी की खबरों के चुनाव और असर को लेकर लेख पढ़ते रहते है। इसकी प्रासंगिकता भी खबर को भूलने तक रहती है। क्या इसे दौर कहना उचित होगा, जब एक जल्दीबाजी में टीवी मीडिया खबर और मनोरंजन के बीच की रेखा को भुला बैठा है। क्या खबर को देखने का दिन कोई और होगा।
अनुभव यहीं बताते है कि तकनीकी और समय के साथ मीडिया के विषय उतने ही सीमित होते जाते है, जितनी उनका असर। एक खबर आपको कब तक बांध सकती है। अधिकतम एक दिन। तो फिर कैसे सोचा जाए कि मीडिया का असर लम्बा रहेगा। समाज बदलने की हद तक।
आज विकसित देशों में हर तरह की मीडिया पर नजर रखने के लिए हर तरह के संगठन और तमाम विकल्प मौजूद है। लेकिन क्या इससे किसी देश में सरकार और समाज के बीच मीडिया खड़ा है। क्या वो पुल है। जिससे गुजरकर सूचना समाज के लिए खबर बन जाती है। किसी भी देश में देख लीजिए। बड़े मीडिया समूह पर किसी न किसी घराने का कब्जा है। और यहीं खबर पर कब्जे की वजह है।
विकासशील देशों के हाल और भी नाजुक है। यहां पहले तो मीडिया विकसित सोच की अवस्था में नहीं है, और अगर एक दो देशों में है भी तो वहां दिशा और दशा तय करने वाले कारक उसे प्रभावित करते रहते है।
भारत में पत्रकारिता के आयाम राजनीति, समाज और समय के साथ अर्थ रहे है। सरोकार से शोर की पत्रकारिता आज मौजूद तो है, लेकिन उसका चेहरा बदल सा गया है। आज खबर लहरी है तो साथ में वार्ता फलक भी है। आज द हिंदू है तो टाईम्स आफ इंडिया भी है। आज एनडीटीवी इंडिया है तो स्टार न्यूज़ भी है।
दो चेहरों के बीच खबर ने स्वरूप और सामर्थ दोनों खो दिया है। बचा है तो केवल एक विश्वास कि एक दिन केवल पत्रकारिता के लिए पत्रकार होगा और खबर के लिए हायतौबा।
सूचक
soochak@gmail.com
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समाचार चैनलों पर क्या दिखाया जाएगा, ये तय करना समाज का काम है। लेकिन भारत जैसे देश में समाज की सहमति को लेकर ही कई तरह के भ्रम जनसंचार माध्यमों में नजर आते है। पत्रिका में जो विमर्श है, वो समाज में नहीं दिखता। एक बड़े पत्रकार ने लिखा कि किसको बता रहें है कि जो दिखाया जा रहा है, वो सही नहीं है। जो टीवी देखता है, वो आम आदमी हो या खास, वो अपनी व्यस्तता के बाद ही इस चौखटे के सामने बैठता है। और इसी व्यस्तता की थकान मिटाने को टीवी चैनलों ने इस चौखटे को मनोरंजन का माध्यम बना रखा है।
सिनेमा को लेकर यहीं निष्कर्ष निकाला जाता है आदमी को वो दिखाओ जिससे वो सिनेमाहाल में अपनी निजी जिंदगी को भुला बैठे। यानि एक तरह की माया। जिसमें आप अपनी पहचान भुला बैठें। तो क्या टीवी ने भी आपको अपनी पहचान भूलने पर मजबूर कर दिया है।
गाहे बगाहे आप अपने अखबार में टीवी की खबरों के चुनाव और असर को लेकर लेख पढ़ते रहते है। इसकी प्रासंगिकता भी खबर को भूलने तक रहती है। क्या इसे दौर कहना उचित होगा, जब एक जल्दीबाजी में टीवी मीडिया खबर और मनोरंजन के बीच की रेखा को भुला बैठा है। क्या खबर को देखने का दिन कोई और होगा।
अनुभव यहीं बताते है कि तकनीकी और समय के साथ मीडिया के विषय उतने ही सीमित होते जाते है, जितनी उनका असर। एक खबर आपको कब तक बांध सकती है। अधिकतम एक दिन। तो फिर कैसे सोचा जाए कि मीडिया का असर लम्बा रहेगा। समाज बदलने की हद तक।
आज विकसित देशों में हर तरह की मीडिया पर नजर रखने के लिए हर तरह के संगठन और तमाम विकल्प मौजूद है। लेकिन क्या इससे किसी देश में सरकार और समाज के बीच मीडिया खड़ा है। क्या वो पुल है। जिससे गुजरकर सूचना समाज के लिए खबर बन जाती है। किसी भी देश में देख लीजिए। बड़े मीडिया समूह पर किसी न किसी घराने का कब्जा है। और यहीं खबर पर कब्जे की वजह है।
विकासशील देशों के हाल और भी नाजुक है। यहां पहले तो मीडिया विकसित सोच की अवस्था में नहीं है, और अगर एक दो देशों में है भी तो वहां दिशा और दशा तय करने वाले कारक उसे प्रभावित करते रहते है।
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Monday, August 13, 2007
ब्लाग्स पर 'मीडिया' के लेख
पत्रकार और मीडिया का नाता श्वास और जिंदगी का है। दोनों के लिए एक उद्देश्य होने पर ही समाज का हित होता है। लेकिन वक्त बदलता गया और दोनों ने अलग अलग राह धर ली। आज पत्रकार एक शून्य में जीता है और पत्रकारिता बाजार में। खैर हमने जब चिट्ठाजगत को खंगाला तो बीते दिनों में ये लेख हमें भाएं।
आप भी पढ़ें....
पत्रकारों पर हमला : एकजुट होइए या फिर पिटते रहिए
दबी , दबती , दब गई जन पत्रकारिता
पत्रकारिता जनता से दूर होती जा रही है : पी साईनाथ
एक पत्रकार की दुखद मौत, हमारी श्रद्धांजलि
विश्व हिन्दी सम्मेलन से आगे - आलोचनाओं में छुपा है नये रास्तों का सफर न्यूयार्क से लौटकर :- पवन जैन
मीडिया का गिद्धभोज
श्श्श्श्श… मुस्लिम
एक अच्छी बाढ़ सबको पसंद है
मेरे लिए पत्रकारिता की पाठशाला हैं पी साईनाथ
खबर क्या है?
गिरफ्तारी से मालामाल हुआ हनीफ
ये पत्रकारिता का स्वर्णकाल है
हिन्दी टीवी पत्रकारिता और पाकिस्तान में फ़र्क है
हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न काल
आज कौन तय कर रहा है पत्रकारिता का मक़सद?
स्टाक एक्सचेंज और अच्छी पत्रकारिता का संबंध
टीवी पत्रकारिता का सबसे शर्मिंदा वक्त
पत्रकारिता का भटियारापन और वैज्ञानिक का भटकता मन
कब था पत्रकारिता का स्वर्ण काल?
पत्रकारिता को ज़िंदा रखने वाले लोग
भूमंडलीकरण और पत्रकारिता
राजा साहब का थोबड़ा टी.वी. में.
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मीडिया का गिद्धभोज
श्श्श्श्श… मुस्लिम
एक अच्छी बाढ़ सबको पसंद है
मेरे लिए पत्रकारिता की पाठशाला हैं पी साईनाथ
खबर क्या है?
गिरफ्तारी से मालामाल हुआ हनीफ
ये पत्रकारिता का स्वर्णकाल है
हिन्दी टीवी पत्रकारिता और पाकिस्तान में फ़र्क है
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Monday, August 06, 2007
न हंसिए न रोइए, केवल खुद को बचाईए
ब्राडकास्टिंग सर्विसेज रेग्युलेशन एक्ट 2007 के प्रारूप में नजर डालने पर आदर्श और व्यावहारिकता के बीच का फासला नजर आने लगता है। ये पत्रकारिता पढाने वाली संस्थाओं के निकले छात्र और काम करने वाले युवाओं के अनुभव से बेहतर समझा जा सकता है। चौथे पन्ने पर न्यूज एण्ड करेंट अफेयर्स चैनल की परिभाषा देख कर समझा जा सकता है कि खबर के जिस पहलू को हम आज समाचार चैनलों पर देखते है, वो न तो आदर्श में सही है न ही व्यावहारिकता में। मसलन परिभाषा में, एक चैनल को हालिया घटनाओं की रिपोर्ट, बहस, विचार, जनता के बड़े हिस्से की रूचि को दिखाने वाली खबरों, ऐसे व्यक्ति और संस्थाओं को, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर जुड़े हो, की खबरें दिखाता हो। ये उस कागज पर लिखा है, जो आने वाले दिनों में हर चैनल के चेहरे पर चिपका होगा।
तो क्या चैनल इसे अपनाने को तैयार है। नहीं। वे स्वयं पर खुद नियंत्रण वाले मूड में है। यानि सेल्फ रेग्युलेशन। नया शब्द नहीं है। पर चैनल चलाने वाले खर्चो के आगे किसी तरह की रेग्युलेशन नहीं पहचानते। वक्त बदला है। लाइव का तमाशा है। इमोशनल खबरों की पूछ है। लो सोसाइटी के विजुअल की इलक नहीं है। शहरों की खबरे है। अपराध की बाढ़ है। और है कुछ मिनट के विजुअल पर घण्टों खेलने का माद्दा।
जरा अपने बच्चे से पूछ कर देखिए क्या वो काण्डोम या एड्स के बीच के संबंध को जानता है। पर वो सेक्स और सेक्सी के अंतर को समझने लगा है। एक हालिया फिल्म में बच्ची नाम सेक्सी पुकारा जाता है।
शिक्षा के दूर जाते चैनल अब आसानी से मिल जाने वाली दोयम दर्जे की खबरों को दिखा दिखा कर समाज को समझा रहे है कि यहीं खबर है। इसे ही देखिए। यही है। पारिवारिक मूल्यों की नींव अब अपराध और नाजायज संबंधों ने हिला दी है। अब केवल समाज में बलात्कार ही नही होता। होता है खुलेआम आवासीय मुहल्लो से देह व्यापार, जिसे स्टिंग आपरेशन से दिखाया जाता है आपको।
रोकना था किसी न किसी को। नागरिक समाज की चेतना को कौड़ी के भाव मानने वाले समाचार चैनलों के स्वयंभू प्रवक्ता अब दिशाहीन नाव के सवार है। एक स्थापित प्रिंट जर्नलिज्म की चीखोपुकार को वे हताशा बताते है। नौकरी पाने की हताशा।
आने वाले दिनों में आप टीवी पर जो देखेंगे वो आपको आपकी आने वाली कई पीढ़ियों तक व्यवहार और आचार में देखना पड़ेगा। किसी दिन किसी तमाशे के किरदार आप होंगे और उस दिन आप न हंस सकेंगे न रो।
http://mib.nic.in/informationb/POLICY/Bill200707.pdf
Soochak
soochak@gmail.com
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तो क्या चैनल इसे अपनाने को तैयार है। नहीं। वे स्वयं पर खुद नियंत्रण वाले मूड में है। यानि सेल्फ रेग्युलेशन। नया शब्द नहीं है। पर चैनल चलाने वाले खर्चो के आगे किसी तरह की रेग्युलेशन नहीं पहचानते। वक्त बदला है। लाइव का तमाशा है। इमोशनल खबरों की पूछ है। लो सोसाइटी के विजुअल की इलक नहीं है। शहरों की खबरे है। अपराध की बाढ़ है। और है कुछ मिनट के विजुअल पर घण्टों खेलने का माद्दा।
जरा अपने बच्चे से पूछ कर देखिए क्या वो काण्डोम या एड्स के बीच के संबंध को जानता है। पर वो सेक्स और सेक्सी के अंतर को समझने लगा है। एक हालिया फिल्म में बच्ची नाम सेक्सी पुकारा जाता है।
शिक्षा के दूर जाते चैनल अब आसानी से मिल जाने वाली दोयम दर्जे की खबरों को दिखा दिखा कर समाज को समझा रहे है कि यहीं खबर है। इसे ही देखिए। यही है। पारिवारिक मूल्यों की नींव अब अपराध और नाजायज संबंधों ने हिला दी है। अब केवल समाज में बलात्कार ही नही होता। होता है खुलेआम आवासीय मुहल्लो से देह व्यापार, जिसे स्टिंग आपरेशन से दिखाया जाता है आपको।
रोकना था किसी न किसी को। नागरिक समाज की चेतना को कौड़ी के भाव मानने वाले समाचार चैनलों के स्वयंभू प्रवक्ता अब दिशाहीन नाव के सवार है। एक स्थापित प्रिंट जर्नलिज्म की चीखोपुकार को वे हताशा बताते है। नौकरी पाने की हताशा।
आने वाले दिनों में आप टीवी पर जो देखेंगे वो आपको आपकी आने वाली कई पीढ़ियों तक व्यवहार और आचार में देखना पड़ेगा। किसी दिन किसी तमाशे के किरदार आप होंगे और उस दिन आप न हंस सकेंगे न रो।
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Thursday, August 02, 2007
Good drought to Magsaysay Award.
Palagummi Sainath. A name of a dedicated Indian. We know him by Everybody Loves A Good Drought.
. Sainath gets 2007 Ramon Magsaysay award for Journalism, Literature, and Creative Communication Arts.
This is a moment of accredition. We got a current interview of Sainath on India Together.
Have a look on the Bharat, he thinks.
"Invisible India is the elephant in your bedroom"
MediaYug
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Monday, July 30, 2007
पंद्रह लाख का नम्बर और मीडिया
ये मेरा शौक है। मैं पूरी दुनिया में फेमस होना चाहता था। लोग मुझे फोन कर रहे है। मेरे परिवार ने मेरा साथ दिया। और इस तरह एक व्यक्ति मीडिया की बदौलत हो जाता है मशहूर। एक नम्बर। जिसमें जुड़े है सात शून्य। इसे खरीदा गया पंद्रह लाख में। और खरीदार बन जाता है खबर।
खबर। हर उत्पाद की खबर। एक सनक की खबर। एक शौक की खबर। क्या यहीं खबर है। किसी के पास पैसे हो, तो वो कुछ भी फालतू करें। और मीडिया इसे पेश करके समाज में एक आर्टिफिशियल एस्पिरेशन पैदा करें।
आर्टिफिशियल एस्पिरेशन। जी हां। जिस शौक ने एक युवक को पंद्रह लाख खर्चने पर मजबूर किया। वो शौक आज हर शहर में लोगों की जुबान पर है। खरीदार ने एक दिन की शोहरत बटोर ली है। पर जिसे सचमें फायदा होगा वो है फोन कंपनी।
समाज में इस खबर से जो असर गया है, वो आने वाले दिनों में युवको, पैसे वालों और सपनों में जीते मध्यमवर्गीय लोगों को लोलुप करेगा, कि वे ऐसे शौक को पूरा करें। यानि अब एक नया तरह का लालच पैदा होगा। जो सही गलत नहीं पहचानेगा।
मीडिया को इस खबर में जो दिखा वो क्या था, ये समझना मुश्किल नहीं। पहला कि शौक और पैसे के बीच जो रिश्ता है, वो साफ दिखा। दूसरा एक व्यक्ति खबर बना सकता है। वो सक्षम है तो। एक अनोखा कारनामा खबर बन सकती है। एक शौक की हद कुछ नहीं। और हर हद के बाद एक खबर छुपी है।
जाहिर है मीडिया, अखबार से लेकर टीवी तक, अब खबरों के असर को देखना समझना छोड़ चुके है। इसी वजह से वो खरीदार की लालसा को बढ़ाते रहते है। किसी भी अखबार को ले लीजिए। हर हफ्ते वो पर्यटन, आवास, वाहन और शौक से जुड़ी खबरों को रंगीन साचे ढांचे में पेश करता है। टीवी इससे एक कदम आगे है। वो रोजाना इस रंगीनी का एक डोज देता है। उसके ग्राहक तय है।
समाज में जो असर देखा जाता है, वो व्यवहार और बदलाव दोनों तौर है। किसी के हाथ में मोबाईल है तो किसी के मुंह में सिगरेट। ये जरूरत से ज्यादा स्टेटमेंट है।
आर्टिफिशियल एस्पिरेशन यानि छलावे वाली चाहतें पैदा करने वाला मीडिया को इन खबरों से जो बाजार मूल्य मिलता है, वो उसके पीछे भागता है। पर इन खबरों के असर से समाज में जो भागमभाग चल रही है, वो केवल अवसाद और पलायन की ओर ले जाने वाली है।
किसी भी जनसंचार माध्यम से ये अपेक्षा कि वो समाज को एक दिशा देगा, कोई गैरजरूरी मांग नहीं है। क्या टीवी इस खबर के जनक को हतोत्साहित नहीं कर सकती, या क्या उसे इस खबर को दिखाने से परहेज नहीं करना चाहिए। अखबार के लिए भी रोचकता क्या मानक है।
किसी भी उत्पाद के लिए ग्राहक की सोच तो समझना जरूरी होता है। भारतीय शहरी मानस अब मोल तोल से ऊपर उठकर शौक और स्टेटमेंट में जीने लगा है। आने वाले दिनों में ईगो की जगह शौक ले लेगा। और समाज में लड़ाई शौक के लिए होगी। इस दौरान मीडिया के लिए शौक होगा हर सनक और अनोखी खबर। इंतजार है किसी रईस के घर के शानोशौकत की खबर का। या किसी के नायाब शौक की हद का।
Soochak
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खबर। हर उत्पाद की खबर। एक सनक की खबर। एक शौक की खबर। क्या यहीं खबर है। किसी के पास पैसे हो, तो वो कुछ भी फालतू करें। और मीडिया इसे पेश करके समाज में एक आर्टिफिशियल एस्पिरेशन पैदा करें।
आर्टिफिशियल एस्पिरेशन। जी हां। जिस शौक ने एक युवक को पंद्रह लाख खर्चने पर मजबूर किया। वो शौक आज हर शहर में लोगों की जुबान पर है। खरीदार ने एक दिन की शोहरत बटोर ली है। पर जिसे सचमें फायदा होगा वो है फोन कंपनी।
समाज में इस खबर से जो असर गया है, वो आने वाले दिनों में युवको, पैसे वालों और सपनों में जीते मध्यमवर्गीय लोगों को लोलुप करेगा, कि वे ऐसे शौक को पूरा करें। यानि अब एक नया तरह का लालच पैदा होगा। जो सही गलत नहीं पहचानेगा।
मीडिया को इस खबर में जो दिखा वो क्या था, ये समझना मुश्किल नहीं। पहला कि शौक और पैसे के बीच जो रिश्ता है, वो साफ दिखा। दूसरा एक व्यक्ति खबर बना सकता है। वो सक्षम है तो। एक अनोखा कारनामा खबर बन सकती है। एक शौक की हद कुछ नहीं। और हर हद के बाद एक खबर छुपी है।
जाहिर है मीडिया, अखबार से लेकर टीवी तक, अब खबरों के असर को देखना समझना छोड़ चुके है। इसी वजह से वो खरीदार की लालसा को बढ़ाते रहते है। किसी भी अखबार को ले लीजिए। हर हफ्ते वो पर्यटन, आवास, वाहन और शौक से जुड़ी खबरों को रंगीन साचे ढांचे में पेश करता है। टीवी इससे एक कदम आगे है। वो रोजाना इस रंगीनी का एक डोज देता है। उसके ग्राहक तय है।
समाज में जो असर देखा जाता है, वो व्यवहार और बदलाव दोनों तौर है। किसी के हाथ में मोबाईल है तो किसी के मुंह में सिगरेट। ये जरूरत से ज्यादा स्टेटमेंट है।
आर्टिफिशियल एस्पिरेशन यानि छलावे वाली चाहतें पैदा करने वाला मीडिया को इन खबरों से जो बाजार मूल्य मिलता है, वो उसके पीछे भागता है। पर इन खबरों के असर से समाज में जो भागमभाग चल रही है, वो केवल अवसाद और पलायन की ओर ले जाने वाली है।
किसी भी जनसंचार माध्यम से ये अपेक्षा कि वो समाज को एक दिशा देगा, कोई गैरजरूरी मांग नहीं है। क्या टीवी इस खबर के जनक को हतोत्साहित नहीं कर सकती, या क्या उसे इस खबर को दिखाने से परहेज नहीं करना चाहिए। अखबार के लिए भी रोचकता क्या मानक है।
किसी भी उत्पाद के लिए ग्राहक की सोच तो समझना जरूरी होता है। भारतीय शहरी मानस अब मोल तोल से ऊपर उठकर शौक और स्टेटमेंट में जीने लगा है। आने वाले दिनों में ईगो की जगह शौक ले लेगा। और समाज में लड़ाई शौक के लिए होगी। इस दौरान मीडिया के लिए शौक होगा हर सनक और अनोखी खबर। इंतजार है किसी रईस के घर के शानोशौकत की खबर का। या किसी के नायाब शौक की हद का।
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Friday, July 27, 2007
मीडियायुग पर 'मीडिया'
हमारे सरोकारों ने हमें मीडिया की सुध लेने का जज्बा दे रखा है। हम अपने स्तर से इसे करते भी आ रहे है। बीच बीच में हमें अपने चिट्ठाजगत में कई लेख देखने को मिलते हैं, जो मीडिया पर केन्द्रित होते है। देखकर खुशी होती है। हमारी आगे से ये कोशिश होगी कि इनके लिंक आपको मीडियायुग पर एक जगह मिले। हमारी लेखक साथियों से भी गुजारिश है कि अपने मीडियालेखों से हमें परिचित कराते रहें।
आज मिले लेख...
कथित न्यूज़ चैनल बॉलीवुड से कुछ सीखें
एक भगोड़े मीडियाकर्मी का बयान
मीडिया और रामू का गधा
मीडिया का बाजार
मीडिया विमर्श के वेब मीडिया अंक का विमोचन
शाबास कैराली टीवी
मीडिया पर दोष
क्या हो गया है भारतीय मीडिया को?
पूजा के प्रतिरोध मे मीडिया की नग्नता
MediaYug
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आज मिले लेख...
कथित न्यूज़ चैनल बॉलीवुड से कुछ सीखें
एक भगोड़े मीडियाकर्मी का बयान
मीडिया और रामू का गधा
मीडिया का बाजार
मीडिया विमर्श के वेब मीडिया अंक का विमोचन
शाबास कैराली टीवी
मीडिया पर दोष
क्या हो गया है भारतीय मीडिया को?
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Thursday, July 26, 2007
शून्य में जीते हम आप
क्या आपको पता है देश में एक ऐसा कानून बनने जा रहा है जो गर्भवती महिलाओं की संख्या का हिसाब रखेगा।
क्या आपको पता है कि देश में के वन कानून में बड़ा बदलाव किया जा चुका है।
क्या आपको पता है कि आईआईएम में अब सरकार निदेशकों के पद भरेगी। इसके विज्ञापन भी निकाले जा चुके है। इससे पहले ये वहां की गवर्निंग बॉडी का काम था।
क्या आपको पता है कि देश में बाल श्रम को लेकर जो कानून लागू है, उसके अनुसार आपको जेल और जुर्माना दोनो हो सकता है।
क्या आपको पता है जंतर मंतर पर आप पांच हजार से ज्यादा की संख्या में धरना नहीं दे सकते है।
क्या आपको पता है कि देश की राजनीति में क्या हो रहा है। और केवल राजनीति ही नहीं जिन नीतियों को राजनेता बनाते है या पेश करते है, वे आपको किस तरह से प्रभावित करने वाली है।

देश में जो हो रहा है, उसका एक चेहरा दिखाने वाली मीडिया अब देश को राजनैतिक, सामाजिक तौर पर जागरूक करने वाला नहीं रहा। ये एक ऐसा वक्त है जब आप देश की राजनैतिक गतिविधियों के हिस्सेदार नहीं है। क्या ये वक्त की जरूरत है या ये अर्थ के प्रभावी होने का प्रभाव है।
क्या फर्क पड़ता है कि हम न जाने कि हमारे लिए कौन सी नीतियां बनाई जा रही हैं। क्या ये मायने रखता है कि हम ये जाने कि सामाजिक विकास की कौन सी कड़िया हम खोते जा रहे हैं।

जनसंचार माध्यमों की भूमिका के मद्देनजर ये उनका कर्तव्य रहा है कि वे वक्त के आगे और पीछे को जोड़कर पेश करें। मतलब कि खबर से जुड़े सभी सरोकारो को पेश करना उनका काम है। लेकिन यहीं पन्ना अब वर्तमान में सिमटता जा रहा है।
देश के राजनैतिक फलक पर होने वाली घटनाओं में केवल चुनाव, सदन स्थगन, दल-बदल और नेताओं की रार ही नहीं होती। हर दिन किसी न किसी नई नीति पर विचार विमर्श चलता रहता है। जो अगले संसद काल में पेश की जानी होती है। जाहिर है हर नीति आपसे जुड़ी होती है। और इससे जुड़ा होता है समाज। तो अगर टीवी या रेडियो, एक अंश में अखबार ने थोड़ी गंभीरता बनाए रखी है, इन नीतियों को पेश न करें तो आप कैसे जानेंगे कि आने वाले दिनों में आपको टीवी रखने पर भी सालाना टैक्स देना होगा।
माना जाता है कि जिस देश की जनता उसके राजनैतिक प्रक्रिया की हिस्सेदार नहीं, वो एक तरह के शून्य में जी रही है। और ऐसा शून्य आपके जीवन को अंधेरे में रखने जैसा है।
हमारे जनसंचार माध्यम, खासकर टीवी को केवल सामाजिक तमाशे को पेश करने की बजाए ये देखना ज्यादा जरूरी है कि वो सामाजिक ताने बाने को पेश करें। राजनैतिक रस्साकशी के ज्यादा राजनीतिक पहल से बनने वाली नीतियों को आगे लाए। और देश के आवाम को ये बताए कि फला कदम आपको यहां ले जाएगा।

देश के एकाध गंभीर अखबार और टीवी चैनलों को ये देखना और भी जरूरी है कि वो अपनी तारतम्यता बनाए रखे। खबरों के बीच एक हार्ड डोज देकर। आपकी चेतना पर जो पर्दा है, उसे केवल आर्डर आर्डर ही दूर न करें। आप खुद भी शिकायती तेवर दिखाकर ये मांग सकते है कि हमें ये देखना है। ये बड़ी बात नहीं है। आप के पास चैनलों के ईमेल, या पते पर अपनी बात लिख सकते है। जब आपके एसएमएस से चैनल किसी को लोकप्रिय या अलोकप्रिया बना सकते है तो आपकी राय की बाढ़ से क्या वे जरा भी नहीं सोचेंगे। सोचिए।
बहरहाल। देश में रहने के लिए संविधान ने आपको कई अधिकार दे रखे हैं। इनमे से किनको कितना इस्तेमाल करना है ये आप पर है। लेकिन देश को जानने के लिए उसकी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक धड़कन से जुड़ना जरूरी है।
सूचकsoochak@gmail.com
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क्या आपको पता है कि देश में के वन कानून में बड़ा बदलाव किया जा चुका है।
क्या आपको पता है कि आईआईएम में अब सरकार निदेशकों के पद भरेगी। इसके विज्ञापन भी निकाले जा चुके है। इससे पहले ये वहां की गवर्निंग बॉडी का काम था।
क्या आपको पता है कि देश में बाल श्रम को लेकर जो कानून लागू है, उसके अनुसार आपको जेल और जुर्माना दोनो हो सकता है।
क्या आपको पता है जंतर मंतर पर आप पांच हजार से ज्यादा की संख्या में धरना नहीं दे सकते है।
क्या आपको पता है कि देश की राजनीति में क्या हो रहा है। और केवल राजनीति ही नहीं जिन नीतियों को राजनेता बनाते है या पेश करते है, वे आपको किस तरह से प्रभावित करने वाली है।

देश में जो हो रहा है, उसका एक चेहरा दिखाने वाली मीडिया अब देश को राजनैतिक, सामाजिक तौर पर जागरूक करने वाला नहीं रहा। ये एक ऐसा वक्त है जब आप देश की राजनैतिक गतिविधियों के हिस्सेदार नहीं है। क्या ये वक्त की जरूरत है या ये अर्थ के प्रभावी होने का प्रभाव है।
क्या फर्क पड़ता है कि हम न जाने कि हमारे लिए कौन सी नीतियां बनाई जा रही हैं। क्या ये मायने रखता है कि हम ये जाने कि सामाजिक विकास की कौन सी कड़िया हम खोते जा रहे हैं।

जनसंचार माध्यमों की भूमिका के मद्देनजर ये उनका कर्तव्य रहा है कि वे वक्त के आगे और पीछे को जोड़कर पेश करें। मतलब कि खबर से जुड़े सभी सरोकारो को पेश करना उनका काम है। लेकिन यहीं पन्ना अब वर्तमान में सिमटता जा रहा है।
देश के राजनैतिक फलक पर होने वाली घटनाओं में केवल चुनाव, सदन स्थगन, दल-बदल और नेताओं की रार ही नहीं होती। हर दिन किसी न किसी नई नीति पर विचार विमर्श चलता रहता है। जो अगले संसद काल में पेश की जानी होती है। जाहिर है हर नीति आपसे जुड़ी होती है। और इससे जुड़ा होता है समाज। तो अगर टीवी या रेडियो, एक अंश में अखबार ने थोड़ी गंभीरता बनाए रखी है, इन नीतियों को पेश न करें तो आप कैसे जानेंगे कि आने वाले दिनों में आपको टीवी रखने पर भी सालाना टैक्स देना होगा।
माना जाता है कि जिस देश की जनता उसके राजनैतिक प्रक्रिया की हिस्सेदार नहीं, वो एक तरह के शून्य में जी रही है। और ऐसा शून्य आपके जीवन को अंधेरे में रखने जैसा है।
हमारे जनसंचार माध्यम, खासकर टीवी को केवल सामाजिक तमाशे को पेश करने की बजाए ये देखना ज्यादा जरूरी है कि वो सामाजिक ताने बाने को पेश करें। राजनैतिक रस्साकशी के ज्यादा राजनीतिक पहल से बनने वाली नीतियों को आगे लाए। और देश के आवाम को ये बताए कि फला कदम आपको यहां ले जाएगा।

देश के एकाध गंभीर अखबार और टीवी चैनलों को ये देखना और भी जरूरी है कि वो अपनी तारतम्यता बनाए रखे। खबरों के बीच एक हार्ड डोज देकर। आपकी चेतना पर जो पर्दा है, उसे केवल आर्डर आर्डर ही दूर न करें। आप खुद भी शिकायती तेवर दिखाकर ये मांग सकते है कि हमें ये देखना है। ये बड़ी बात नहीं है। आप के पास चैनलों के ईमेल, या पते पर अपनी बात लिख सकते है। जब आपके एसएमएस से चैनल किसी को लोकप्रिय या अलोकप्रिया बना सकते है तो आपकी राय की बाढ़ से क्या वे जरा भी नहीं सोचेंगे। सोचिए।
बहरहाल। देश में रहने के लिए संविधान ने आपको कई अधिकार दे रखे हैं। इनमे से किनको कितना इस्तेमाल करना है ये आप पर है। लेकिन देश को जानने के लिए उसकी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक धड़कन से जुड़ना जरूरी है।
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Saturday, July 21, 2007
हरिया के देश में हैरी पॉटर की जिंदगी
जिस देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी के ख्वाब देखता है, करोड़ो खर्च करके अंग्रेज बनना चाहता है. वहां हैरी पॉटर जिंदा रहेगा या मरेगा कितना बड़ा सवाल है। आज सुबह ये रहस्य टूटा कि वो जिंदा रहेगा।

टीवी चैनलों के आम दर्शक के लिए मिथक बन चुका ये फिक्शनल किरदार आज चाचा चौधरी और हमारे बिल्लू, पिंकी, नागराज, ध्रुव और किवदंती सरीखी रचनाओं से बहुत आगे है। चंद्रकांता संतति या किसी अलाद्दीन तो इसके आगे पीछे नहीं है। ये हम नहीं हमारी टीवी कहती है। एक अनुमान के मुताबिक हर खबरिया चैनल ने बीते दिनों में रोजाना आधा घंटा हैरी पॉटर को दिया है। मानो पूरा देश हैरी के बचने की प्रार्थना कर रहा हो।
क्या इसे उदारीकरण कह सकते है। नहीं। क्योकि एकपक्षीय आयातित किरदार का मायाजाल है। जिसे हम आप अब समझ कर भी अंजान है।
टीवी चैनलों को बालक और युवा होते वर्ग को अपने से जोड़ने के लिए इस मायाजाल में अपनी मौजूदगी दिखाना जरूरी है। बाजार में आठ सौ की किताब वो खरीद सकता है, जो इस बाजार के लिए बना है।
अरबों के व्यापार वाली किताबें और अंग्रेजी। क्या हम दिन प्रतिदिन अपनी समझ से कटते जा रहे है। जिस देश में कुछ करोड़ लोग अंग्रेजी के साथ जीते है, वे ही इंडिया है। हरिया को भूल चुके भारत में हैरी ही बचेगा और बिकेगा।
हमें बहलाने और डराने वाले खबरिया चैनलों के सामने जो दिक्कतें है वो समझ के बाहर है। लेकिन क्या बहुप्रचारित और बहुप्रतीक्षित उत्पादों को अपनाने के लिए केवल जनउन्माद ही काफी होंगे।
हैरी को जिंदा किवदंती बनाने वाली जे के राउलिंग के सामने इतिहास में हमेशा मौजूद रखने की चुनौती थी। और आज के टू मिनट मीडिया ग्लेयर का दुनिया में ऐसा सम्मानजनक अंत के साथ किया जा सकता है। सो उन्होने इसे सात किताबों में सिमटा दिया। ताकि आगे कोई हैरी पॉटर पर सीक्वेल भी न लिख सके।
देश को खबरों से आगाह कराने वाले खबरिया चैनलो को ये देखना जरूरी है कि हरिया की मौत के बाद भी उसकी बरसी वो करते रहे। ये हैरी की दुनिया में फिट नहीं बैठता। उसका मायाजाल हमारी कथाओं से बड़ा नहीं है। लेकिन जिस बाजार में वो बिक रहा है,वो हमारी आकांक्षाओं से बहुत बड़ा है।
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टीवी चैनलों के आम दर्शक के लिए मिथक बन चुका ये फिक्शनल किरदार आज चाचा चौधरी और हमारे बिल्लू, पिंकी, नागराज, ध्रुव और किवदंती सरीखी रचनाओं से बहुत आगे है। चंद्रकांता संतति या किसी अलाद्दीन तो इसके आगे पीछे नहीं है। ये हम नहीं हमारी टीवी कहती है। एक अनुमान के मुताबिक हर खबरिया चैनल ने बीते दिनों में रोजाना आधा घंटा हैरी पॉटर को दिया है। मानो पूरा देश हैरी के बचने की प्रार्थना कर रहा हो।
क्या इसे उदारीकरण कह सकते है। नहीं। क्योकि एकपक्षीय आयातित किरदार का मायाजाल है। जिसे हम आप अब समझ कर भी अंजान है।
टीवी चैनलों को बालक और युवा होते वर्ग को अपने से जोड़ने के लिए इस मायाजाल में अपनी मौजूदगी दिखाना जरूरी है। बाजार में आठ सौ की किताब वो खरीद सकता है, जो इस बाजार के लिए बना है।
अरबों के व्यापार वाली किताबें और अंग्रेजी। क्या हम दिन प्रतिदिन अपनी समझ से कटते जा रहे है। जिस देश में कुछ करोड़ लोग अंग्रेजी के साथ जीते है, वे ही इंडिया है। हरिया को भूल चुके भारत में हैरी ही बचेगा और बिकेगा।
हमें बहलाने और डराने वाले खबरिया चैनलों के सामने जो दिक्कतें है वो समझ के बाहर है। लेकिन क्या बहुप्रचारित और बहुप्रतीक्षित उत्पादों को अपनाने के लिए केवल जनउन्माद ही काफी होंगे।
हैरी को जिंदा किवदंती बनाने वाली जे के राउलिंग के सामने इतिहास में हमेशा मौजूद रखने की चुनौती थी। और आज के टू मिनट मीडिया ग्लेयर का दुनिया में ऐसा सम्मानजनक अंत के साथ किया जा सकता है। सो उन्होने इसे सात किताबों में सिमटा दिया। ताकि आगे कोई हैरी पॉटर पर सीक्वेल भी न लिख सके।
देश को खबरों से आगाह कराने वाले खबरिया चैनलो को ये देखना जरूरी है कि हरिया की मौत के बाद भी उसकी बरसी वो करते रहे। ये हैरी की दुनिया में फिट नहीं बैठता। उसका मायाजाल हमारी कथाओं से बड़ा नहीं है। लेकिन जिस बाजार में वो बिक रहा है,वो हमारी आकांक्षाओं से बहुत बड़ा है।
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